नाटय प्रदर्शन अधिनियम 1876 काला कानून में हो रहा है फेरबल

दोस्तों नमस्कार अगर आप नाटक करते है तो आपको ये जान लेना जरुरी है की नाटय प्रदर्शन अधिनियम 1876 क्या है? इस का निर्माण क्यों किया गया ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी भी लोकतांत्रिक देश की मूलभूत ज़रूरतों में से एक है अगर आपके पास ये नहीं है तो आप लोकतंत्र में नहीं जि रहे है और जहां तक सवाल कला और संस्कृति का है तो उसे तो फलने-फूलने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र वातावरण ही चाहिए . लेकिन समय समय पर विभिन्न रूप से इसे नियांत्रिक करने का भी प्रयास होता ही रहता है . सरकार, समाज, परिवार, विभिन्न संस्थाएं और व्यक्ति भी कला और संस्कृति पर अपना ज़ोर आजमाते रहे हैं .

1876 में ब्रिटिश राज ने भारतीय रंगमंच पर पूरी तरह नियंत्रण स्थापित करने के लिए नाटय प्रदर्शन अधिनियम पारित किया था. नाट्य प्रदर्शन अधिनियम’ 16 दिसंबर 1876 को प्रचलन में आया, जिसका प्रारूप थामस बेरिंग ने तैयार किया था और यह वायसराय नार्थब्रूक के समय में अमल में लाया गया था . देश के आजाद होने के 70 वर्ष बाद भी यह कानून विद्यमान है . भारत ब्रिटिश उपनिवेश का गुलाम था और ब्रिटिश शासन को ये पत्ता था की नाटक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बहुत बड़ा हथियार है अगर इसे रोका नहीं गया तो देश इसके माध्यम से आजादी का मांग करेगा इसे रोकने के लिए ही नाटय प्रदर्शन अधिनियम 1876 कानून पारित किया गया .

तत्कालीन वायसराय कीनर्थ बूककी राय में इस अधिनियम के द्वारा भारत में रंगमंच पृदृश्य को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है इस अधिनियम के संबंध में उनके निम्न विचार जो इस प्रकार है :-

 

इस अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के द्वारा किसी भी नाटक सार्वजनिक प्रावधान को रोका जा सकता . नाटक के क्षेत्र में मूका अभिनय एवं अन्य नाटय रूपों को भी शामिल कर लिया गया था .अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ये अधिकार प्राप्त हो गये थे कि वह किसी भी नाटय प्रदर्शन का :- (क) षड्यंत्रकारी प्रकृती का । (ख) सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त करने का । (ग) कानून द्वारा स्थापित सरकारी नियमों एवं संस्थाओ के विरूद्ध असंतुष्टी एवं विरोध उत्पन्न करने वाला। व्यक्तियों को भ्रम उत्पन्न करने वाला घोषित किया जा सकता था तथा एसे प्रदर्शन को निषिद्ध किया जा सकता था इस अधिनियम के अनुसार उपनियमों के अवहेलना करने वाले व्यक्तियों के समूह को दंडित करने का प्रावधान भी किया गया है जिसके अंदर तीन साल की कैद और जुर्माना हो सकता था या दोनों भी हो सकता है .

 

इस अधिनियम के अंतर्गत सरकारी एजेंसी या अधिकारी को यह अधिकार प्राप्त था कि वह किसी भी नाटक या नाटकों की संतुष्टी एवं सत्यापन कर सकता था .पुलिस को यह भी अधिकार था कि वह नाटक कि प्रस्तुती के दौरान उस प्रेक्षागृह में जा कर वह उस नाटक को रुकवा भी सकती थी साथ ही दृश्य सज्जा, वस्त्र एवं अन्य सामग्री को जब्त भी कर सकती थी . सरकारी की अनुमती के बिना किसी भी सार्वजनिक स्थल पर नाटक प्रस्तुत करने की अनुमती नहीं थी .

 

इस कानून को 1947 पश्चात भी इस अधिनियम को वापस नहीं लिया गया अपितु विभिन्न प्रांतो की सरकारों ने अपनी-अपनी नीतियों एवं आवश्क्ताओं के आधार पर उपअधिनियम में संशोधन कर लागू कर दिया जिनके कारण अधिकांश प्रान्तों में रंगमंच की गतिविधियों का प्रशासन का और अधिक नियंत्रण स्थापित हो गया .पर सरकार ने संसद के मानसून सत्र में निरसन और संशोधन (दूसरा) विधेयक 2017 पेश किया था जिसके माध्यम से 131 पुराने और अप्रचलित कानूनों को समाप्त करने का प्रस्ताव किया गया था इस काले कानून को अब समाप्त किया जा रहा है, जो निश्चित ही एक स्वागतयोग्य क़दम है . बस कला और संस्कृति के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण ख़ासकर हिंदी वालो के लिए ज़रा सम्मानित भाव वाला हो जाए तो आनंद आ जाए .

@बिकेश्वर त्रिपाठी