मानव मस्तिष्क और वायरस ! इंसान अब इंसान नहीं रहा मशीन बन चुका है !

(रेशमा ख़ातून./मिथिलांचलन्यूज़):-पर आज का इंसान मशीन बन चुका है ये बात सही नहीं है बल्कि इंसान तो शुरू से ही मशीन की तरह काम करता आ रहा है !



अब देखो ना हर इंसान के सोने जागने यानी ऑन-ऑफ़ होने का समय बंधा है !
खाने-पीने से इंसान को अपनी खोइ हुई ऊर्जा मिलती है , जैसे ईंधन के भरने पर या बिजली से मशीनें चल पड़ती हैं !
मशीनें ख़राब पड़ती हैं इन्हें बनाया जाता है और कई बार इनके पार्ट-पूर्ज़े भी बदले जाते हैं ! उसी तरह इंसान बीमार पड़ता है तो उसका इलाज होता है और कोई अंग ख़राब हो जाने पर उन्हें बदला जाता है !
मशीन का इस्तेमाल दुसरे लोग करते हैं उसी तरह से इंसान जो भी काम करता है उसके काम का उपयोग दुसरे लोग करते हैं !
मशीन को एक साथी की ज़रुरत होती है इंसान को भी !
अब असल बात जो सारी बातों से निकल कर सामने आई है वह है इंसान का दिमाग़ और मशीन का समान होना !
इंसानी दिमाग कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर की तरह ही होता है ! जिस तरह इंटरनेट पर वायरस डाल कर उसे बिल्कुल ही अनुपयोगी बना दिया जाता है और मेमोरी वाला भाग बरबाद होकर सारे काम उल्टे-पुल्टे करने लगता है उसी तरह इंसान के दिमाग में भी वायरस डाल कर उससे बेकार और उल्टे-पुल्टे काम लिए जाते हैं !
अच्छा-ख़ासा कोई अपनी राह चुन कर चल रहा होता है कुछ असामाजिक लोग उसमें मनगढ़त दुश्मनी की बातें डाल कर उसे उसकी राह से भटका कर सब कुछ क्षत-विक्षत कर देने को उकसाते हैं ये लोगों से कहते हैं कि वह दुसरे धर्म-मज़हब का है , वह हमारे धर्म-मज़हब को नहीं मानते , वह धर्म-मज़हब के लिए ख़तरा है , उसके लड़के तुम्हारी लड़कियाँ ले भागेंगे , उनकी लड़कियों की घर वापसी कराआे , उन्हें मारो , उन्हें भगाओ !
बस….
ये विकृत मानसिकता के लोग लोगों में एैसे वायरस डालने से ज़्यादा और कर भी क्या सकते हैं !
ये चाहते हैं कि सब को दिमाग़ी – मानसिक रूप से अपने कब्ज़े में कर लें , लोग आपस में लड़ेंगे , सड़कों पर दंगा करेंगे , आपस में कटेंगे- मरेंगे और ये गद्दी धारी बनेंगे ! खुद आराम से इन्हें दंगा करते देखेंगे और फ़साद फैला कर चैन की नींद सोएेंगे ! जिनके लोग मरेंगे वो मारने वालों को हाय और श्राप देंगे !
दंगा फैलाने वाले इन दंगाइयों की लाइक लिस्ट में होंगे वह उनके नाम का जयकारा लगाएेंगे !
वहीं आम जन चाहे वह किसी भी धर्म-मज़हब या ज़ात का हो इस बात को रोयेंगे कि दंगाइयों ने उनका घर , काम , परिवार सब ख़त्म कर दिया !
बचे हुए लोग नए काम नए स्थान की खोज में ना चाहते हुए भी दरबदर घूमते रहने को मजबूर हो जाते हैं !
और इस तरह हर दंगे के बाद देश की अर्थ व्यवस्था बरबाद होती है !
क्या यही देश प्रेम है ?
क्या यही मानवता है ?
क्या यही धर्म है ?
दिमाग़ में वायरस लिए ये लोग अगर धर्म ना होता तो लोगों में ज़ात-पात की लड़ाई लगवाने में आगे रहते !
यदि ज़ात-पात का अस्तित्व ना होता तो रंग भेद का कीड़ा दिमाग़ में डालते !
यदि सभी का रंग समान होता तो

यक़ीनन स्त्री- पुरुष का भेद बता कर इनके बीच विश्व युद्ध करा देते !
इन्हें बस टॉपिक चाहिए आम लोगों को लड़वाने का तभी तो ये शांति से रहेंगे और सुख भोगेंगे !
यदि ये इतने ही सूरमा होते तो सरहद पर जाकर देश की सुरक्षा कर रहे होते ! आंतरिक कलह फैला कर देश को यूं बरबाद ना कर रहे होते !